June 23, 2011

मैं ऐसी क्यों हूँ ?


क्या हूँ मैं सबसे अलग, या ये मेरी समझ का दोष है ?
क्यों वो चीजें मुझे ना भये, जो दुसरो के लिए मौज़ है ?


हँस देती हूँ मैं तब, जब माहौल बड़ा संगीन हो |
जोर से रोने का दिल करता, जब सबकी शाम रंगीन हो |


अपनी हीं दुनिया में रहना मुझ को ज्यादा भाता है |
फिर भी कभी-कभी ये सवाल मेरे मन में आता है,
                          मैं ऐसी क्यों हूँ ?


कभी एक बच्चे की तरह मैं मचलू जाने को चाँद पर |
कभी मैं बस सो जाना चाहूँ सारी दुनिया को भूल कर |

हूँ मैं कौन, क्या मैं चाहूँ, मैं भी समझ नहीं पाती |
कभी मैं जिन चीजों पे रूठू, कभी उन्ही पे हँस जाती |


बड़ी बड़ी बातों को भूल, छोटी बातों पे लडती हूँ |
अजब्-गजब् हरकते मेरी, ना  जाने मैं ऐसी क्यों हूँ ?


खुद को जान लिया जिसने वो जग में सबसे ज्ञानी है |
मैं ऐसी क्यों हूँ, ये गुत्थी मुझ को भी सुलझानी है |

 

7 comments:

ओमी said...

बहुत खुब

Reshma said...

wonderfully voiced dilemma... I guess we all go through periods of self-analysis and introspection once in a while.This poem reminded me of the song main aisa kyun hoon from lakshya..

ANEESH said...

Naam tho cheeni kum rakha hai, par itne mithaas bhare pankthiyon main itni pyaari kavitha likhi ho!!

Sahi hai madam. Humko complex de diya. main tho kabhi aise likh na pavun. :(

Wonderful writing. Keep going girl. Nice one.
The dilemma of every living soul, is penned down in a beautiful way.
Kudos.. Salut'.

Unknown said...

Cute write up. Keep up the good work

Sweta said...

@Omi: Thanks :)

@Reshma: oh so everyone has the same question :)

Sweta said...

@Aneesh: likh loge aneesh, try tho karo... and thanks for the kind words :)

@atlasshrugged: Thanks!

Rajlakshmi said...

we all are unique :) isiliye chalta hai :)
mast likha hai

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